समझ में नहीं आता कि दोनों में साधु कौन है

गुणों  की  धारणा  ही   सच्चा  श्रृंगार  है  ... 


 एक साधु नदी किनारे, धोबी के कपड़े धोने के एक पत्थर पर खड़े - खड़े ध्यान करने लगे । इतने में धोबी गधे पर कपड़े लादे वहाँ आया । उसने साधु को देखा तो प्रतीक्षा करने लगा कि धुलाई के पत्थर से साधु हटे और वह अपना काम शुरू करे । कुछ देर प्रतीक्षा करने पर भी जब साधु नहीं हटे तो उसने प्रार्थना की, महात्मा जी, आप पत्थर से हटकर खड़े हो जाएँ तो मैं अपने काम में लगूँ । धोबी की बात साधु ने अनसुनी कर दी
धोबी ने फिर प्रार्थना की किन्तु साधु ने इस बार भी ध्यान नहीं दिया ।  अब धोबी ने साधु का हाथ पकड़ कर धीरे से उन्हें पत्थर से उतारने की कोशिश की । धोबी द्वारा हाथ पकड़े जाने पर साधु को अपमान महसूस हुआ । उन्होंने धोबी को धक्का दे दिया । साधु का क्रोध देखकर धोबी की श्रद्धा भी समाप्त हो गई । उसने भी साधु को धक्का देकर पत्थर से हटा दिया ।
अब तो साधु और धोबी आपस में भीड़ गए । धोबी बलवान था अतः उसने साधु को उठाकर फेंक दिया । साधु भगवान से प्रार्थना करने लगा, हे भगवान, मैं इतने भक्ति - भाव से रोज आपकी पूजा करता हूँ फिर भी आप मुझे इस धोबी से छुड़ाते क्यों नहीं ? जवाब में साधु ने आकाशवाणी सुनी, तुम्हें हम छुड़ाना चाहते हैं किन्तु समझ में नहीं आता कि दोनों में साधु कौन है और धोबी कौन ? यह सुन साधु का धमण्ड चूर हो गया । उसने धोबी से क्षमा मांगी और सच्चा साधु बन गया ।
दरअसल वेश धारण करने से नहीं बल्कि सदगुणों को आचरण में उतारने से साधुता आती है ।
धन से सम्मपन्न होना तो सरल एवं सहज है लेकिन गुणों से सम्मपन्न होना मुश्किल है क्योंकि मनुष्य बुराइयों को छोड़ने और अच्छाइयों एवं गुणों को ग्रहण करने में अपने आपको कमजोर समझते हैं और इस कमजोरी के कारण गुणों को देखने के स्थान पर दूसरों के दोष देखने लगते हैं । इसका सीधा - सा मतलब है कि व्यक्ति अपनी कमी - कमजोरी छिपाने के लिए दूसरों की कमी को देखते हैं । इसलिए हर मनुष्य अमृतवेले उठते ही कोई भी एक अच्छा कार्य करने का संकल्प ले और रात को सोते समय एक बुराई का त्याग करके सोए । जो ऐसा करते हैं वे गुणग्राही बन जीवन को गुणों से सम्मपन्न बना लेते है ।

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